साइकिल की सवारी Riding a bicycle

 

मैं पुनीता कुमारी बेतिया, बिहार से हूँ। मेरे गाँव का नाम चैबरिया है जहाँ सिंह, साह, पंडित और दलित जाति के लोग ज्यादा रहते हैं। मेरी उम्र 17 साल है। मेरे पैर में तकलीफ़ है। 

 

जब चार साल की थी मैं तब छत पर से गिर गई थी तो मेरा पैर टूट गया था। मेरा पैर ठीक भी हुआ था। लेकिन जब तीन साल के बाद मेरे पैर में अचानक दर्द होने लगा और मेरे मम्मी-पापा अस्पताल ले गए तो उस समय डॉक्टर को मेरी बीमारी समझ में नहीं आई। उसने मेरे पैर में दो ईंटा बाँध कर मेरे पैर को लटका दिया। उससे मेरा एक पैर बड़ा और एक पैर छोटा हो गया। इस गलत इलाज की वजह से मुझे चलने में बहुत दिक्कत होती है। स्कूल जाने का मन था तो हम एक डंडे के सहारे स्कूल में पढ़ने जाते थे। तो स्कूल के सारे बच्चे मुझ को लंगड़ी कह कर चिढ़ाते थे। उस समय मैं बहुत रोती थी। एक ही जगह पर बैठी रहती थी, सोचती थी कि कुछ जादू हो जाए और मैं साइकिल चलाने लगूँ।

मेरे पापा से यह सब देखा नहीं गया तो वे मुझको इलाज के लिए गोरखपुर ले गए। अपने हिस्से का खेत बेच कर उन्होंने मेरे पैर का आपरेशन करवाया। तब भी मेरा पैर ठीक नहीं हुआ । एक बार की बात छोडिए, मेरा तो 17 साल की उम्र में पाँच-पाँच बार आपरेशन हो गया है। पैसा लगा लगा कर घरवाले थक चुके हैं, और लॉकडाउन में उनकी मुसीबत और बढ़ गई थी । मेरा इलाज भी नहीं हो रहा था । एक बार तो हमने ऑनलाइन डॉक्टर को भी दिखाने की कोशिश की थी तो वह भी नहीं हुआ। मेरी तबियत और खराब होती गयी। लॉकडाउन में कहीं आना जाना नहीं हो रहा था। गाँव से दूर अस्पताल है जो कि बंद हो गया था और शुरू में गाड़ी भी नहीं चल रही थी। हमारे गाँव में एक प्राथमिक केंद्र है। उसकी बहुत बुरी हालत हो गई है। फिर भी वहीं गाँव में ही मेरा इलाज करवाया गया। फायदा हुआ है उससे।  

 

इलाज के अलावा हमारे घर में 6 लोग का खर्च है। फैट संस्था से मदद मिली। पाँच हज़ार आया था जिसमें हम चार भाई बहन की पढ़ाई भी थी। प्राइवेट में सब फीस माँग रहे थे। कैसे होता ? सबकी पढ़ाई अभी रुक गई थी। इस लॉकडाउन के ठीक पहले मैं एक संस्था में काम करने लगी थी। एक महीना पूरा नहीं हुआ था कि सब चीज़ पर रोक लग गई। ज़रूरत पड़ने पर मैंने उनसे अपना मेहनताना माँगा तो वे टालने लगे। इस तरह दो महीने बीत गए। फिर मैंने फोन किया तो संस्था वाले बोले कि तुमको पैसे की ज़रूरत है तो खुद आकर ले जाओ। हम तुम्हारे घर पर पैसा देने नहीं आएँगे। मेरी तकलीफ़ से उनको कोई मतलब नहीं  था । चलो कोई बात नहीं। 

 

जब हम पढ़ते थे हम भी एक लड़का से बात करते थे। हमको वह पसंद था। उसकी उम्र 17 साल थी। लॉकडाउन में जब पापा मेरी शादी की बात चलाने लगे तो हमने उस लड़के से शादी के बारे में एक बार बात की। हम दोनों एक ही जाति के थे। वह बोला कि ठीक है हम तुमसे शादी करेंगे। हमें लगा कि चलो पापा जब शादी करवा रहे हैं तो हम कम से कम अपनी पसंद के तो लड़का से करेंगे। अभी हमने उसके बारे में अपने माँ-पापा किसी को नहीं बताया था। तभी लड़के का फोन आया कि देखो शादी के लिए मेरे पापा नहीं मानेंगे। हमने उससे सीधे कहा कि शादी तुम्हें करना है, तुम्हारे पापा को नहीं। इस पर उसने कहा कि असल में जितना हमारे पापा दहेज माँगेंगे उतना तुम्हारे पापा तो देंगे नहीं और ऊपर से तुम विकलांग हो। इससे और भी हमारे पापा नहीं मानेंगे। इस पूरी बात में हमारे घर के लोग कुछ नहीं बोले थे। मेरी  विकलांगता की वजह से बात आगे नहीं बढ़ी। हमें लगा था कि वह लड़का हमें भी पसंद करता होगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वह हमें पसंद नहीं करता था क्योंकि वह शरीर से अच्छा था और हम विकलांग लड़की थे। इसलिए उसने हमें छोड़ दिया। हम उससे शादी करना नहीं चाहती थे, मगर घर पर शादी के दबाव की वजह से हमने सोचा था कि उसी से पूछते हैं जो पसंद है। 

 

हमें लगता है कि प्यार तो करना ही नहीं चाहिए। पहले मेरे पापा सबसे ज्यादा मेरी पढ़ाई पर फोकस करते थे। अब तो पढ़ाई का नाम भी नहीं सुनना चाहते,सिर्फ एक गलती की वजह से जो मैंने नहीं की है। हमारे गाँव में एक लड़की एक लड़के से प्यार करती थी। उसने गलती कर दी और हमारे गाँव के लोगों ने उसको लड़के के साथ देख लिया था। उस चक्कर में पापा मेरी भी शादी करवाने पर तुले थे। 

समाज के लोग पापा को बोलने लगे कि तुम अपनी बेटी की शादी करवा दो। एक तो तुम्हारी बेटी पहले से विकलांग हे। अगर कुछ ग़लत काम कर बैठी तो जगहँसाई हो जाएगी। एक दिन मुझको पता चला कि पापा  लड़का देखने चले गए हैं। तब हमने पापा से बात की। वे बोलने लगे कि अब हमारे पास इतना पैसा नहीं है कि हम तुम्हारी पढ़ाई और बीमारी में पैसा लगा सकें। मैं पापा से बोली कि पापा, हम ऐसा कोई भी काम नहीं करेंगे जिससे आपके मान-सम्मान पर कोई आँच आए। आप मेरी मैट्रिक की परीक्षा खत्म होने दीजिए। उसके बाद देखा जाएगा।  

 

कैसे भी मैंने शादी को टाला, अब उसके बाद का हमें नहीं मालूम कि क्या होगा। लॉकडाउन में तो स्कूल बंद थे, पढ़ाई घर पर कितनी हो पाती स्कूल 2 किलोमीटर दूर था तो बाहर निकलना होता था। अपने से साइकिल नहीं चला पाती थी तो पहले किसी की साइकिल पर बैठ के स्कूल चली जाती थी। अब तो वह भी नहीं। लेकिन हरदम दोस्त का साथ और साइकिल की सवारी को याद करती हूँ। कितना अच्छा लगता था!

 

हम कभी घूमने-फिरने नहीं निकलते । हम कहीं यदि थोड़ी देर के लिए भी गए तो हमारे शरीर की बनावट देखकर लोग हँसते हैं। हमें बहुत ज्यादा बुरा लगता है। लेकिन इस लॉकडाउन को मुझे अपनी ज़िंदगी का लॉकडाउन नहीं बनने देना था। मैं बहुत ज्यादा खुश हूँ कि अब अपनी पढ़ाई फिर से शुरू कर रही हूँ। साइकिल की सवारी के सपने देख रही हूँ। पहियों वाली कुर्सी मिल जाए तो यहाँ-वहाँ उड़ती फिरूँगी।

 

I Punita Kumari Bettiah, live in a village called Chhabaria in Bihar. There are 6 members in my family. Mostly Singh, Shah and people from Dalit community resides in my village. I am 17 years old and I have some problems with my leg. I was 4 years old when I fell from the terrace and broke my leg. I recovered but after 4 years my pain arose again. My mother and father took me to the hospital but the doctor could not diagnose my illness. The doctor tied two bricks with my leg and hung it , because of which my one leg is shorter than the other one. Because of the wrong treatment I face issues in walking. I wanted to go to school so I managed to walk with the help a stick. The students in the school teased me, called me disabled. I would cry because of that and would sit in a corner and think for a miracle to happen so that I could ride a bicycle.  My father could not bear to see all this so he sold his farm and took me to Gourakhpur for my treatment. There I went under a surgery.  At the age of 17 I have gone through 5 operations, my parents are now tired of spending so much money. The lockdown has increased their problems, my treatment has also stopped. Once we tried to consult a doctor online but that also didn’t happen. My health deteriorated. Due to lockdown no one could go anywhere. There is a hospital far from the village but that was closed as well and there was no conveyance to commute. My village has a primary health centre which is not in a good condition. I was taken there for my treatment, it did help me. 

 

FAT organisation has helped us. We got Rs 5000/- from which we 4 brother sisters could manage our education. In private they were asking for fees how would it have been possible? Our studies have also stopped. Before the lockdown I started working with an organisation but due to this lockdown everything has been put to stop. In time of need I asked them to pay my salary but they started avoiding, this is how two months passed. When I called them they said if you need your salary you come and collect from us, we wont come to your house to give the same. They did not care about my misery but its alright. 

When I was a student I use to talk to a boy, and I liked him as well. He was 17 years old. During the lockdown when my father started to talk about my marriage, I spoke to the boy for marriage, we were from the same caste.  He said that he is willing to marry me, I thought when my father is thinking about my marriage at least I can get married to the man of my own choice. I haven’t told my mother, father about the boy, one day he called and said that his father would not agree for the marriage. I said to him straight “It's you who needs to marry not your father.”

 

He said actually “the amount of dowry my father would ask your father won't agree to pay, and moreover you are disabled which is why my father won't agree to the marriage all the more ''. In this entire matter my family did not speak anything. The idea of marriage could not proceed because of my disability. I thought the boy liked me as well, but he did not. That's because he was physically able and I wasn’t. I did not want to marry him but because of the pressure from my family I thought let me ask the boy I like. I feel that one should not love.

 

Earlier my father focused on my studies but now he does not want to even listen about it, because of my one mistake that I have not committed. In my village a girl and a boy were in love and one day the villagers saw them together and that was their mistake, now because of which even my father was after my life for my marriage. People in the society started telling my father “You should get your daughter married. Firstly she is disabled and if she does something wrong everyone will laugh at you.”

 

One day my father went to see a boy for my marriage , I tried to speak to my father and he said “Now I don’t have so much money to bear the expenses of your studies and your treatment.” I told my father that “I wont do anything that will hurt your dignity and respect, let me complete my matric exams and then we can think about it.”

 

Somehow I managed to procrastinate my marriage, but I don’t know what will happen after this. The schools are closed due to lockdown and I don’t know how much studies can be done from home?  School was 2km away because of which at least we could step outside, I cannot ride a bicycle so I would use a lift on someone else’s bicycle to go to school, but now that cannot be an option anymore. I think about my friends and their support and the bicycle ride often, it feels good!

I did not go out much and if I did because of my physical formation people would laugh at me. I really felt bad, but I won't make this lockdown a lockdown for my life.  I am very happy I am starting my education again, I have started to dream about bicycles, if I get a wheelchair I would fly everywhere.

 

 

Written by Punita Kumari, Chhabaria, Bihar

This article is part of an Livelihood Action Project of FAT with young girls from Bihar and

Jharkhand to enable them to become professional story writers. The training for story writting was done by Purwa Bharadwaj, and she edited and finalised the story in Hindi. The English translation of this story was done by an intern from TISS, Aqsa and final edits by Meetu Kapoor.